Friday, March 27, 2015

Zindagi

ज़िन्दगी से कभी न कहो 

मैं ही क्यों ? मैं ही क्यों ? 

बल्कि कहो, ज़िन्दगी मुझे आज़मा, मुझे आज़मा

वक़्त की देहलीज़ पर  लाखों सितम हैं हमने सहे

अब डर नहीं लगता ऐ ज़िन्दगी तू मझे आज़मा

नहीं लगता डर अब रात क अँधेरे से

नहीं लगता डर अब भीड़ में, अकेले में

नहीं लगता डर अब किसी आंधी या तूफ़ान से

हमारी ज़िन्दगी की कश्ती तो तूफानों से भी बच कर आ निकली

अब ले ज़िन्दगी कौनसा इम्तेहान लेती है

वक़्त के दायरे से निकल कर तूने ऐसे इम्तेहान लिए

अब तो ज़िन्दगी भी एक इम्तेहान लगती है

ज़िन्दगी अब एक महज़ सन्नाटा बन चुकी है

अब नहीं लगता डर ज़िन्दगी की किसी मुश्किल से

जी करता है तुझे सीने से लगा कर जी भर कर रो लू

सिसकने को अब कोई कन्धा भी नहीं तुझे ही अपने सन्नाटे का सहारा बना लूँ

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